सोचती हूँ जो तलवार होती हाथ में...डॉ.पूनम द्विवेदी

Date: 02 June 2023
Amrish Kumar Anand, Doraha
सोचती हूँ जो तलवार होती हाथ में...

सोचती हूँ जो तलवार होती हाथ में तो

कितनों के शानों पर सर नहीं होता...

न कोई फितना फ़साद होता

न तो जुल्मों सितम का निशां होता

शहतीरों को तब न कोई शूल कभी चुभता

आफ़ताब लिये फिरते हैं ये चराग़ सभी

इनको न आंधियों का डर कभी होता

जुगनुओं की रौशनी भी तब

मशालों पर परवाज़ करती

आसमां के दिये होते सभी ज़मी पर

धधकते कहकशों कि सरगोशियों में

धड़कते कई तूफ़ां होते...

तुम जो आसमां को नोच नोच कर भी

मन का अंधेरा मिटा न सके...

चाँद भी टांग लो खूँटी पर तो क्या..

एक कतरा भी रौशनी का कहीं अटका न सके,मुकद्दर लिखते लिखते ज़माने का

हिसाब अपना ही न संभाल सके

ताले लगाये थे जिन घरों पर

वहां बसेरे आज भी हैं...

एक ज़रा सी आहट पर

खौफ में लिपटगये थरथरा कर

मजलिसें, महफ़िलें और सजती

सभाओं का तिलिस्म

बहुत हो गईं राष्ट्रहित और जनहित की नुमाइशें गुज़रते लम्हों की तपिश

जलाकर ख़ाक न करदे कहीं

डरो जो सीने में ज्वालामुखी और

रगों में अंगारे लिए फिरते है

न आज़माओ इन्हें

मौंजों से खेलती कश्तियों को

तैरने का हुनर आज भी है...

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